क्षुल्लक रत्न श्री ध्यान सागर जी महाराज

जब वीरसेन आचार्य को लगा की मेरा समय अधिक नहीं है तब उन्होंने २०००० श्लोक प्रमाण जय धवला की रचना करने के उपरांत अपने शिष्य आचार्य जिनसेन स्वामी को वह कार्य संपन्न करने का आदेश किया और उन्होंने ४०००० श्लोक प्रमाण जयधवला की रचना कर के ग्रन्थ पूर्ण किया ।
उन्हीं आचार्य जिनसेन स्वामी ने "पार्श्वाभ्युदय" नामक एक अद्भुत ग्रंथ की भी रचना की है।
मेघदूत की समस्या पूर्ती के रूप में उन्होंने रचना की।
ग्रन्थ में पार्श्वनाथ भगवान की कथा के प्रसंग में
चतुर्थ सर्ग के ४६ वे काव्य में आचार्य कहते हैं:
"उपसर्ग पर विजय प्राप्त कर के पार्श्वनाथ भगवान् सर्वज्ञ हो गए।"
चतुर्थ सर्ग के ४६ वे काव्य में आचार्य कहते हैं:
"उपसर्ग पर विजय प्राप्त कर के पार्श्वनाथ भगवान् सर्वज्ञ हो गए।"
और उसके बाद ५८ वे काव्य में कहते है..
धरणेन्द्र ने उपसर्ग काल में उपसर्ग निवारण प्रयत्न में जो फणा की रचना की थी उसके बाद केवलज्ञान होने के पश्चात् धरणेन्द्र ने पार्श्वनाथ स्वामी की स्तुति की और स्तुति के अंत में पुनः पार्श्वनाथ भगवान् पर फणा बनाया।
धरणेन्द्र ने उपसर्ग काल में उपसर्ग निवारण प्रयत्न में जो फणा की रचना की थी उसके बाद केवलज्ञान होने के पश्चात् धरणेन्द्र ने पार्श्वनाथ स्वामी की स्तुति की और स्तुति के अंत में पुनः पार्श्वनाथ भगवान् पर फणा बनाया।
इस प्रकार केवली अवस्था में भी पार्श्वनाथ भगवान् पर फणा मण्डल का उल्लेख है यह बात जयधवला ग्रन्थ के रचनाकार आचार्य जिनसेन स्वामी की वाणी से प्रमाणित होती है।
इस प्रकार जिनका यह आग्रह है कि केवलज्ञान के उपरांत भगवान् पर फणा नहीं होता वो उस आग्रह में संशोधन कर सकते है, क्योंकि "आगम"- जिनवाणी माता से बड़ा कोई नहीं है।
और हमारा ज्ञान तो आचार्य जिनसेन स्वामी की धूल के बराबर भी नहीं है।

मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियों को लेकर १६ पुस्तकें लिखी है ६०००० श्लोक प्रमाण (२०००० गुरु द्वारा और ४०००० उनके द्वारा) जयधवला ग्रन्थ के रचनाकार ऐसे महान् आचार्य ।।
हम अपने तुच्छ ज्ञान का अभिमान करते है पर वे महान् गुरु अपने ज्ञान का बिल्कुल अभिमान नहीं करते।
इसलिए विनम्र बनना बहुत बहुत आवश्यक है।
आगम निर्दोष है।
यदि समझ न आए तो वह अपनी बुद्धि का दोष है,
जब भी आगम का अर्थ करना हो तो पहला नियम यह है की "जो लिखा है वह सही है",
कैसे सही है- यह समझना मुझे बाकि है।"
कैसे सही है- यह समझना मुझे बाकि है।"
इतनी विनय यदि अपने पास रही तो कभी न कभी समझने का मौका भी अपने को पुण्य से प्राप्त हो सकता है।
और यदि आगम पर सन्देह किया तो जन्म-जन्मान्तर तक समझने का अवसर प्राप्त होना भी दुष्कर हो जाएगा।
और यदि आगम पर सन्देह किया तो जन्म-जन्मान्तर तक समझने का अवसर प्राप्त होना भी दुष्कर हो जाएगा।

"आगम चक्खू साहू" कहा है।
आगम को साधु की आँख कहा है और जो साधु आगम को स्वीकार नहीं करते वह अंधे है।
आगम् सर्वोपरि है।
जयउ सुय देवदा ।।


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▶ आगमधारा उपदेश प्रतिदिन प्रातः 8.30 शाहपुरा मंदिर भोपाल
अपना देश अपनी भाषा
इंडिया हटाओ, भारत लाओ। – आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज जी
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