इसशिक्षा से अर्थ (धन) तो मिलता है, लेकिन किस कीमत पर! संबंध, इंसानियत,दयाभाव और विछोह की कीमत पर? यदि हमें उचित व स्तरीय शिक्षा देना है, तोकहीं जाना नहीं है, बस अपने इतिहास को ही खंगालना है।

परम पूज्य आचार्य १०८ श्री विद्यासागर जी महाराज जी  अतुल मोदी ( देनिक भास्कर ) से हुई इस चर्चा 

देश की समग्र उन्नति की अपेक्षा है, तो फिर शिक्षा पद्धति में आमूल-चूलपरिवर्तन की जरूरत है। वर्तमान में लागू पाठ्यक्रम स्वयं भ्रमित है। देशको स्वतंत्र हुए 67 वर्ष हो गए किंतु आज तक हम यह निश्चित ही नहीं कर पाएकि शिक्षा की आखिर किस पद्धति को अपनाएं कि देश समग्र विकास की गति कोपकड़े। यह कहना है राष्ट्रसंत 108 आचार्य विद्यासागरजी महाराज का।रविवार को दैनिक भास्कर से विशेष बातचीत में उन्होंने देश की शिक्षा,विकास और इतिहास पर प्रकाश डालते हुए इन्हें भविष्य से जोड़ा। उन्होंनेकहा कि वर्तमान में शिक्षा नौकरी परस्त है। शिक्षा के नाम पर सिर्फविज्ञान, गणित जैसे विषयों पर जोर दिया जा रहा है। दर्शन, नीति-न्याय कीशिक्षा ही नहीं है। यह शिक्षा हमें आधुनिक गुलामी दे रही है, जो सिर्फ औरसिर्फ नौकरी परस्ती के लिए ली या दी जा रही है। इससे असंस्कृति को बढ़ावाही मिल रहा है, उद्योग व व्यापार का विकास नहीं। पूर्व की शिक्षा औरवर्तमान की शिक्षा में यही अंतर है। यही कारण है कि अर्थ से जुड़ी शिक्षाने चिकित्सा व शिक्षा जैसे पवित्र कार्यों को भी व्यापार बना दिया है। इसशिक्षा से अर्थ (धन) तो मिलता है, लेकिन किस कीमत पर! संबंध, इंसानियत,दयाभाव और विछोह की कीमत पर? यदि हमें उचित व स्तरीय शिक्षा देना है, तोकहीं जाना नहीं है, बस अपने इतिहास को ही खंगालना है। जिनके साथ हम चलरहे हैं, उनका इतिहास उनके बारे में हमें बताता है। वहां बच्चों कोमाता-पिता से अलग व उनके स्तर के अनुसार शिक्षा दी जाती रही है, वहांगृहस्थ जीवनशैली का सिद्धांत ही नहीं रहा, इससे वे शिक्षा के साथसंस्कारों से परिपूर्ण नहीं हुए। हमारे देश में गृहस्थ जीवन का काल है,जिसमें शिक्षा का स्थान गुरुकुल रहा है। राजा, रंक आम समाज सभी के पुत्रवहां एक साथ एक सी शिक्षा लेते थे। उन्हें, नीति, न्याय दर्शन, संस्कारके साथ साथ विज्ञान और अन्य विषय पढ़ाए जाते थे।125 करोड़ की जनसंख्या वाले इस देश में तथाकथित अंग्रेजी जानने वाला 5करोड़ लोगों का हिस्सा ही शिक्षित माना जाता है, शेष को अनपढ़ की श्रेणीमें रखा जाता है, ऐसा क्यों? विश्व को सबसे पहले यह बताने वाले किपेड़-पौधों में भी जीव निवास करता है और सिद्ध करने वाले वैज्ञानिकजगदीशचंद्र बसु ने भी कहा था कि अंग्रेजी भाषा पढऩे के पहले अपनी भाषा कोसिखना जरूरी है। विज्ञान भी सिद्ध कर चुका है कि कंप्यूटर के लिए सबसेसरल भाषा संस्कृत और हिेंदी है। फिर हम अपनी भाषा को महत्व क्यों नहींदेते, विश्व े कई देशों में अपनी मातृभाषा में ही कार्य व शिक्षा दी जातीहै, और वे विकास की बुलंदियों पर हैं, फिर हमारा देश में हिंदी को अपनानेमें पीछे क्यों है? जैसा ज्ञात हुआ उसके अनुसार, सर्वोच्च व उच्चन्यायालयों में करीब 5 करोड़ वाद लंबित हैं, इसका कारण भी कहीं न कहींभाषा ही है। अपनी भाषा राष्ट्रभाषा से ही देश का विकास, जन-जन से जुड़ावव ज्ञान का प्रकाश फैलाना संभव है। व्यापार की भाषा, बोलचाल की भाषा वप्रशासनिक भाषा राष्ट्र भाषा या प्रादेशिक भाषा होनी चाहिए।अपना देश विकासशील, तो विकसित कौन?आचार्यश्री विद्यासागर महाराज ने कहा कि हमारे देश के बारे में कहा जाताहै कि हम विकासशील देश हैं। यदि हम विकासशील हैं, तो फिर कौन सा देशविकसित की श्रेणी में आता है, क्योंकि विकास तो निरंतर प्रक्रिया है।उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि जब अमेरिका में मंदी आई थी और वहां 200बैंकों का दिवाला निकला था, तब इससे निपटने के लिए जो नीति की रूपरेखाबनी, उसे वहां की समिति ने अस्वीकार्य कर दिया था। कारण दिया गया था किइसमें कोई भी अर्थशास्त्री भारत से नहीं है। अब हम जिसे विकसित मान रहेहैं, वह हमारे बिना इतनी बड़ी नीति पर निर्णय नहीं ले सकता, तो फिर हमअविकसित कैसे? गांधीजी के सहयोगी मित्र व प्रतिष्ठित पत्रकार वसाहित्यकार धर्मपाल भारतीय ने देश के इतिहास की 10 चुनिंदा किताबेंनिकाली थीं। इन्हें विदेशी इतिहासकार व यात्राकारों ने ही लिखा था। सभीमें एक मत से कहा गया था कि भारत कृषि प्रधान देश ही नहीं, बल्कि व्यापारउद्योग व कला में विश्व में सर्वोच्च स्थान पर है। हमारा देश विश्वव्यापार केंद्र रहा है। विज्ञान व तंत्र ज्ञान में शीर्ष पर रहा है। यहसब इतिहास में ही दर्ज है, जो ज्यादातर विदेशियों ने ही लिखा है। देश केविकास का आदर्श क्या है, कोई देश या कोई भाषा? नहीं। निष्कर्ष यही है किहमारा आदर्श इतिहास ही है। इतिहास का अध्ययन ही आप को उस ओर ले जाएगा, जोविकास का चरम है।

अपना देश  अपनी भाषा 
इंडिया हटाओ, भारत लाओ। – आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज जी

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