रत्नकरण्ड श्रावकाचार ग्रन्थ - दृष्टि हमारी है द्रष्टान्त हमारा है तो इसमें पर को दोष नहीं दे सकते


 "अमृत वाणी" 📣

आज 29 अक्टूबर को जैन मंदिर हबीबगंज में आयोजित रत्नकरण्ड श्रावकाचार ग्रन्थ की वाचना करते हुए परम पूज्य आचार्य १०८ श्री विद्यासागर जी महाराज जी ने कहा कि हम लहरों को देखकर मुग्ध होते है तो ये दोष लहर का नहीं बल्कि हमारा है। दृष्टि हमारी है द्रष्टान्त हमारा है तो इसमें पर को दोष नहीं दे सकते। हमारी दृस्टि कुछ स्वीकार करती है तो वो अनायतन हो जाती है। जिसने वीतरागीता प्राप्त करली उसके लिए दूसरी बस्तु का कोई राग नहीं रह जाता है। पर निमित्त से हम अपने 4 अंगों को सुदृढ़ बनाते हैं। दुसरे के दोषों का विस्तार नहीं करना चाहिए। निंदक को अपने पास नहीं फटकने देना चाहिए क्योंकि निंदा का जब दोष आत्मा को लगता है तो वो भवों भवों तक भटकती है। निंदा से हमेशा बचना चाहिए।

      उन्होंने कहा कि आँखों में पानी अपने आप नहीं आता बल्कि जब करुणा के भाव जाग्रत होते हैं तब भीतर से भावों के झरने फूटते हैं। ये जीवन का एक प्रयोग होता है इससे सिद्ध होता है जीवन में एकत्व की भावना प्रबल होती है। अपने आपको जो सम्यक द्रष्टी मानता है उसे दुसरे को मिथ्यादृष्टि नहीं मानना चाहिए, इसे चिंतन की दरिद्रता कहते हैं जबकि भारतीय संस्कृति चिंतन में हमेशा श्रेष्ठ रही है।

     उन्होंने कहा कि हमें हमेशा मान के समय बालक के सामान निश्छल बन जाना चाहिए। खाने के बाद एक स्थान पर बैठ जाना शरीर के लिए घातक होता है। इसलिए शरीर को चलायमान रखना चाहिए ताकि पाचन क्रिया ठीक रहे, योग क्रियाएँ भीं करते रहना चाहिए, स्वस्थ्य शरीर से ही आत्मसाधना निर्विघ्न रूप से चलती है। सम्यक दर्शन को क्रिया से जोड़ो तभी असंख्यात गुणी निर्जरा होती है। हमें अपनी शक्ति को न छिपाना और दूसरों के दोषों को छिपाना ही सम्यक दर्शन की तरफ ले जा सकता है। सक्रीय रहने से ही रक्त का संचार अच्छे ढंग से  हो सकता है।

     मंदिर परिसर में प्रसिद्ध लेखक डॉ अबरार मुल्तानी की पुस्तक "बीमार होना भूल जाइए" का एक स्टाल लगाया गया है। इसके लेखक को आचार्य श्री ने आशीर्वाद प्रदान किया है। इसका प्रकाशन मौसम बुक्स द्वारा किया गया है। लेखक डॉ अबरार सुल्तानी ने आचार्य श्री के समक्ष कुछ नियम भी लिए हैं।

    आज आचार्य श्री और समस्त संघ ने उपवास साधना की।



अपना देश  अपनी भाषा 
इंडिया हटाओ, भारत लाओ। – आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज जी

शब्द संचयन 
पंकज प्रधान  

Comments