शौच धर्म पर आचार्य श्री के प्रवचन


भोपाल। उत्तम शौच धर्म के सन्दर्भ  में पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने आज श्री आदिनाथ दिगम्बर जैन मंदिर हबीबगंज में आयोजित धर्मसभा में कहा कि शुचिता पवित्रता निर्मलता आत्मा की प्रकृति है । इस शरीर में किसी ने आत्मा को नहीं डाला परंतु ये रहस्य है जिसे जानना है । एक तरफ दुनिया शरीर को मजबूत कर रही है एक तरफ कमजोर कर रही है पता नहीं क्यों । जिंदगी भर धन के पीछे भागने बाले बीमारी के समय में घर बालों को सरकारी अस्पताल में ले जाने का कहते हैं यानि परिग्रह का भूत उस समय भी उन  पर हाबी होता है।
   

        समय सार ने आत्मा को ऐंसा तत्व कहा है जो अनमोल है । जीवन का सही मूल्यांकन करने वाला आत्मतत्व है जो ज्ञाता और द्रष्टा होता है जबकि काया अशुचि धाम है  ,काया अशुचिता का एक पिंड है जिसके कारन आत्मतत्व भी दूषित हो जाया करता है । भीतर प्रकाश का पुंज होता है परंतु उस पुंज का अनुभव तभी हो सकता है जब शुचिता के भाव जागृत होते हैं । अग्नि के संस्कार पड़ने पर ही कच्चा पदार्थ खाने योग्य बन पाता है उसे एक प्रकार से प्राण मिल जाते हैं । उसी प्रकार दश लक्षण धर्म का पालन करने बाले लोगों को धर्म के सही संस्कार मिल जाते हैं और बो मोक्ष मार्ग की तरफ बढ़ने के योग्य हो जाता है । जो मांसाहारी हैं उन्हें भी अग्नि देवता के समक्ष घुटने टेकने पड़ते हैं कच्चा बो भी नहीं ले पाते क्योंकि हानिकारक होता है ।

         शौच धर्म अपूज्यनीय को भी पूज्य बना देता है । मिटटी को जब छाना जाता है तो बो अमूल्य हो जाती है फिर मूर्तिकार उसे आकार में ढाल देता है और बो मिटटी अनमोल कृति बन जाती है । जो दौड़ धुप शरीर के लिए हो रही है बो शरीर अशुचिता से भरा हुआ है उसे भी खाने के लिए अन्न की आवश्यकता है सोने चाँदी की सिल्लियों से उसकी उदर पूर्ती नहीं की जा सकती है । कितना अच्छा खाना खा लें शरीर पर सुगन्धित लेप लगा लें परंतु उत्सर्जन दुर्गन्ध से भरे मल का ही होगा फिर आप नाक पर हाथ रखते हो क्योंकि ये शरीर अशुचिता से भरा है । शुद्धात्मा ऐंसे शरीर के भीतर कैंसे रह पा रही है यही रहस्य है।

        उन्होंने कहा कि सरकार कितना ही स्वच्छता का ढिंढोरा पीट लेती है परंतु वातावरण को दूषित होने से नहीं बचा सकती बैसे ही आप इस शरीर पर कितने ही सुगन्धित लेप लगा लो शुचिता आने बाली नहीं है । सदियों से ये शुद्धात्मा अशुद्ध काया को ढोते ढोते घूम रही है थक भी नहीं रही है । अज्ञान दशा ही अनंतकाल से शुद्धात्मा को भटका रही है । गुफाओं और कंदराओं में जाकर वेद लिखने बाले सूत्र लिखने बाले पागल नहीं होते बल्कि अपने ज्ञान से बो हमें ऐंसा अनमोल खजाना अध्यात्म का देकर गए हैं जो हमारे अशुचिता को हमारी अज्ञान दशा को समाप्त कर हमारे वास्तविक स्वरुप का दर्शन कराते हैं । ये वीतराग विज्ञानं है जिसकी उपासना में लींनं होने बाला बासना की तरफ कभी नहीं जाता है कभी भोग में आशक्त नहीं होता है । हम जीवन में कभी बैठे नहीं मंथन करते रहें चलते रहें उस दिशा की तरफ जो हमें पानी में छिपे दूध का दर्शन करने में सक्षम हो । चमक के पीछे दौड़ने से आप चमकदार नहीं हो सकते बल्कि भीतर की चमक को अपने जीवन का प्रकाश बनाएं । हीरे के एक एक कण को परखने बाला पारखी होता है ऐंसे ही भीतर जो हीरा विद्यमान है उसे परखने के लिए पारखी ज्ञान चक्षु होते हैं।

      आचार्य श्री ने कहा की सम्यक दृष्टि जीव अपनी अशुचिता दशा को पहचान लेता है और बो फिर इसमें लिप्त न होकर शौच धर्म को अंगीकार कर वीतरागिता की उस दिशा की और अग्रसर हो जाता है जो आपके आत्म तत्व की दशा बदल देता है फिर शरीर भले ही अशुचि हो परंतु आत्मबल उसे हीरे के सामान चमकदार बना देता है।

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   【शब्द संचयन】
        पंकज प्रधान



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इंडिया हटाओ, भारत लाओ। – आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज



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